कड़वा सच


नाट प्लेस के निकट ही मासिक पत्रिका  का दफ्तर है। इस पत्रिका के सम्पादक के रूप में मेरी नियुक्ति अभी दो माह पहले ही हुई थी। आज जैसे ही दस बजे मैं ऑफिस पहुंचा, चपरासी ने मुझे एक बड़ा-सा लिफाफा थमाते हुए कहा, ‘सर! एक औरत इसे अभी-अभी देकर गई है। कहने लगी, इसे सम्पादक जी को दे देना।’
मैंने सोचा,कोई लेखिका  आई होगी और अपनी रचना देकर लौट गई। मैंने धीरे-से उस लिफाफे के मुख को फाड़कर उसके अन्दर से कागजों का एक पुलिन्दा निकाला। ज्यों ही कागज खुले, उनमें से फोटो सरक कर नीचे जा गिरी। मैंने लपक कर वह फोटो उठा लिया। जैसे ही मैंने उस फोटोग्राफ को देखा, मैं चौंक गया। यह एक  कैबरे डांसर की नृत्य मुद्रा की फोटो थी। एक पल के लिए तो मैं झेंपा, परंतु फिर उन कागजों की ओर निगाह मारी। यह एक पत्र के रूप में रचना थी। मैंने आराम से कुर्सी पर बैठकर पढऩा शुरू किया- ‘आरती’ के संपादक महोदय, जैसा कि आपने इस लिफाफे में पड़ी फोटो से अनुमान लगा लिया होगा कि मैं एक कैबरे डांसर हूं। मैं यहां के ‘नवरंग होटल’ में लगभग तीन साल से कैबरे डांस दे रही हूं। बहुत समय से एक आग-सी मेरे भीतर सुलग रही थी और उसी आग को किसी आग के दरिया में बहाने के लिए आपकी पत्रिका का सहारा लेना चाहती हूं। आशा है, आप मेरी इस दर्द-गाथा को, अपनी ‘आरती’ के पृष्ठ पर अंकित करने का कष्ट करेंगे।
‘आज से तीन वर्ष पहले मैं मुंबई की एक चाल में रहती थी। निर्धनता ने मेरे सारे परिवार को अपने खूंखार जबड़ों में जकड़ रखा था। अभी मैं दस वर्ष की ही थी कि मेरी मां ने रोटियों में बढ़ोतरी करने के लिए, किसी अमीर कारखानेदार के यहां बर्तन, सफाई और कपड़े धोने के लिए सौ रुपये महीने पर नौकरी करवा दी। आप तो जानते हो संपादक महोदय, यह उम्र तो सखियों संग खेलने-कूदने की होती है,परंतु मुझे साथी मिला कारखानेदार की जूठन का, गन्दगी का और मैल का। न जाने कैसे एक खामोशी से यह सब मैंने स्वीकार कर लिया। बापू एक फिल्म स्टूडियो में फर्नीचर आदि इधर-उधर रखने का काम करता था, परंतु इस काम के लिए प्रोड्यूसर लोग, केवल उसे दो सौ रुपये महीना देते थे,जिसमें से पचास रुपये तो खोली के किराये के रूप में उड़ जाते थे। इसी मजबूरी के लिए मेरी मां शायद मुझे सखियों की बजाय जूठे बर्तनों का साथ करवाने के लिए छोड़ आई थी। मैं सारा-सारा दिन बर्तन मांजती, फर्श साफ करती और कपड़े धोती और साथ ही दिन में कई-कई बार मालकिन की जहर-बुझी गालियों का हार भी पहनती।


संपादक जी, जाने मेरे बाल-मन पर कैसी काई-सी फैल गई कि मैंने अपने-आपको उस वातावरण-सा ढाल लिया। दिन यूं ही गुजरते गए। मैं बर्तन मांजती रही, फर्श साफ करती रही, मैले कपड़ों को कूट-कूट कर धोती रही और कभी-कभी तो लगता, जैसे इन कपड़ों की मैल के  दरिया में, मैं सारी की सारी डूबती चली जा रही हूं, जिसमें से मुझे कोई निकालने वाला दूर-दूर तक नजर नहीं आता।…
और फिर मैंने यूं ही चुपके से अपनी उम्र का चौदहवां साल पूरा कर लिया। जैसे ही पन्द्रहवें वर्ष में पांव रखा, मुझे अपनेपन से  एक लगाव-सा होता अनुभव हुआ। एक मीठी-मीठी कसक-सी उठती महसूस होने लगी। … कभी-कभी अनायास ही मैं झूठे सपनों में सोचती कि कोई उस पार से एक राजकुमार आयेगा और अपने कदमों संग चलाकर मुझे दूर-बहुत दूर  ले जाएगा।…. और कुछ दिनों बाद संपादक जी, मेरे जीवन का पहला अनुभव आता है। मैं जिस घर में काम करती थी, वहां एक मेहमान आया। राजीव नाम था उसका। वह एक चित्रकार था। हर समय न जाने क्यूं खोया-खोया रहता था। कभी-कभी तो मुझे ऐसा महसूस  होता जैसे वह जागते में  भी सो रहा हो। ऐसी अवस्था में बड़ा भला-सा लगता वह। फिर अचानक एक दिन जब मैं बाहर सेहन में धुले कपड़े तार पर डालने गई, उसने मेरे पास आकर कहा— क्या तुम मेरा मॉडल बनोगी? मैं एक पल के लिए भौंचक्की-सी रह गई। जैसे मेरे से जवाब कोसों दूर उतर गया हो।  मैं उस जवाब को पकड़े बगैर घर के भीतर भाग गयी। मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था। एक मीठी-सी सिहरन मेरे रोम में बिजली के करंट की भांति फैल गई थी। उस रात सोना चाहा, सो न सकी और फिर भोर के  अंतिम सितारे ने छुपते-छुपते मेरे होंठों से धीमे से एक हां करवा दी-मैं मॉडल बनूंगी।’
काम पर जाने से पहले मैंने आज पहली बार एक अच्छी-सी पोशाक पहनी। आगे कभी अच्छा पहनने का मन ही नहीं करता था। मैं जैसे ही कारखानेदार के यहां पहुंची, राजीव मेरी प्रतीक्षा में था। उसने मेरे पहुंचने के पहले ही मेरी मालकिन से मेरा मॉडल बनने की आज्ञा ले ली थी।
‘रचना, आज तुम्हें भागने की जरूरत नहीं। मैंने आंटी से तुम्हें मॉडल के लिए आज का दिन मांग लिया है।’ मैं एक पल तो चौंकी, परंतु फिर धीरे से मुस्करा कर हां कर दी। वह मुझे पास ही हरी-हरी घास के लॉन पर रखे कैनवास स्टैंड के पास ले गया। स्टैंड से कुछ हटकर एक स्टूल पड़ा था, उस पर बैठ जाने को कहा। मैं धीरे से उस स्टूल पर जा बैठी। उसने  जैसे  ही मेरे सिर को पोज के लिए अपने हाथों में लिया, मेरे शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ गई। उसने मुस्करा  कर कहा,’ हां, बस यूं ही एक  नेचुरल-सी मुद्रा बना लो।’  और फिर संपादक महोदय, कुछ दिनों के बाद राजीव ने कैनवास से उठाकर मुझे सारा का सारा जीवित अपने-आप में समा लिया। उसने कहा था, ‘ रचना, तू ही मेरे चित्रों की दुल्हन है।’… और संपादक महोदय, मैं नहीं  जानती… सचमुच मैं आज भी नहीं जानती,… उसने उस कैनवास की दुल्हन को एक शाम के धुंधलके में सचमुच ही दुल्हन बना डाला! मुझ पर विश्वास करना संपादक जी, उस शाम के बाद मैं कई शामें लगातार रोती रही थी और एकाएक लोगों की नजरें बदलने  लगीं। उनकी एक-एक नजर मेरे शरीर को आग के शोलों की तरह जलाने लगी।
धीरे-धीरे लोगों के व्यवहार में व्यंग्य और खुला मजाक आ गया। मैं अपने-आप में जैसे सिमट गई थी। पहले तो मैं समझ नहीं पाई, परन्तु फिर धीरे-धीरे मैं सब समझ गई। मैं भागकर राजीव की बांहों से लिपटते हुए रो दी, ‘ राजू अब जल्दी से ब्याह लो मुझे, नहीं तो ये लोग जीने नहीं देंगे मुझे। मेरे पेट में तुम्हारा बच्चा…!’ और राजीव ने विश्वास दिया था-घबराओ नहीं रचना, मैं शीघ्र ही अपने मां-बाप को यहां ले आऊंगा और तुम से, अपने प्यारे मॉडल से ब्याह रचा लूंगा।’ मैं उस विश्वास की डोर से बंधी उन आने वाली सुखद घडिय़ों की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ दिनों के बाद राजीव अपने मां-बाप को लाने के लिए कहकर चला गया। मुझसे जाते-जाते कह गया, ‘मैं शीघ्र लौटूंगा  रचना!’ परंतु सम्पादक जी, वो नहीं आया। दिन महीनों का चोला पहन गये- वो नहीं आया। मैं उसके आने वाले बच्चे के लिए सारा दिन जूठे बर्तन मांजती रही, फर्श धोती रही, मैले कपड़ों को कूटती रही। समझ  नहीं पा रही थी कि क्या करूं। अपने हाथ-पैरों को देखती तो मुझे अपने-आप से नफरत होने लगती। अपने शरीर के अंग-अंग से एक सड़ांध, एक बास फूटती महसूस होती। … और फिर एक दिन उस सड़ांध ने मेरा पेट छोड़कर मेरी  बांहों  का सहारा  ले लिया। हां सम्पादक जी, राजीव के चित्रों की दुल्हन  ने राजीव की लड़की को जन्म दे दिया। कारखानेदार ने कुलटा की उपाधि देकर मुझे काम से अलग कर दिया। मां-बाप ने दुत्कारते हुए कहा, ‘जा, जिस हरामी की हरामी औलाद है, उसी के पास फेंक आ।’ नहीं जानती थी कि मैंने कहां जाना है। आकाश में चमकते सितारे किसी जासूस की भांति मेरा पीछा कर रहे थे। मेरे सामने परेशानियों का एक असीम सागर फैला था और मुझे बिना किसी पतवार के उसमें उतरना था। एक बार मन में आया कि आत्महत्या कर लूं, परंतु कैसे करती?  वह आंचल में दुबकी नन्ही  जान, जो मेरी जान पर बन आई थी,उसे कहां छोड़ती? क्या दोष था उसका? और फिर मैंने एक निश्चय  किया। ऐसा  निश्चय, जिससे एक बार तो मेरी आत्मा ने  धिक्कारा, परंतु अंत में विजयी हुई। सुबह की प्रथम किरण के साथ ही मैंने राजीव की उस मैल को,एक अनाथालय में बिना  मां-बाप का कहकर दाखिल कर दिया। सोचा, अगर  इसके भाग्य में यही जगह लिखी है तो मैं क्या करूं! और उस अनाथालय से मेरे कदम, उस बाजार को ढंढऩे  के लिए बढ़ चले, जिसे सीधे शब्दों में हमारा समाज ‘रंडी का कोठा’ कहता है,जहां पर रात के अंधेरे में न जाने और कितने राजीव अपना मुंह काला करते हैं परंतु उन्हें दिन के उजाले में कोई नहीं पूछता। वह बाजार, जहां पर मेरी तरह न जाने कितनी ‘चित्रों की दुल्हनें’ अपने जीवन के कड़वे घूंट पीते-पीते जीने का असफल प्रयास कर रही हैं। उसी बाजार का रास्ता पूछने के लिए मैंने एक रिक्शा  वाले को आवाज दी। जैसे ही मैंने उसे अपनी बात कही, वह एक बार तो हैरान-सा हुआ फिर ढिठाई से बोला,  ‘मालूम पड़ता है, नई बाई आई हो। चलो मैं तुम्हें वहां छोड़े आता हूं।’ और वह  मुझे नरक के उस द्वार पर पहुंचाने के लिए अपनी रिक्शा बड़ी तेजी से बढ़ाने लगा। शायद उसे भय था  कि शिकार रास्ते में ही निकल न जाए। जैसे ही उसने मुझे उस बाजार में उतारा,कोठों से हजारों सहमी नजरों ने  मेरा स्वागत किया।
… और उस दिन के बाद मैं ‘रचना’ से रचनाबाई बन गई। क्योंकि मैं नई-नई आयी थी, इसलिए ग्राहकों ने मेरा मोल भी और बाईयों से कहीं अधिक दिया। और मैंने हर बार अपने हर खरीदार से यही कहा, ‘ हाय-हाय कितने  बांके जवान हो तुम! आओ मुझे अपनी बांहों में भरकर चटखा दो!’ सम्पादक जी, न  जाने कितने अंधेरे कोनों में मैंने यह नाटक खेला और करती भी तो क्या? मुझे याद है ऐसे ही नाटक के एक शो में, मुझे आपके शाहर का एक सेठ बाटलीवाला मिला। उसका दिल्ली में एक होटल था। उसने जब मेरी मांसल देह को भरपूर नजर से तोला तो उसकी बांछें खिल गईं, ‘रचनाबाई, एक बात कहूं?’
‘कहो सेठ बाटलीवाला जी!’  मैंने भी एक छिनाल के अंदाज में उसकी भाषा की नकल करते हुए कहा।
‘ही-ही-ही, तुम चाहो तो जी, तुम्हें मैं अपने दिल्ली के ‘नवरंग’ होटल में  कैबरे डांसर बना सकता हूं जी!’
मैं एक पल तो आश्चर्य के समुद्र में डूब गई। फिर एकदम से बोली —’क्या सच?’
‘ही-ही-ही, और नहीं तो क्या झूठ जी! तुम्हें इसके लिए एक हजार रुपया माहवार तनख्वाह और साथ में खानो-पीनो और पहननो मुफ्त।’ उसने यह कहते-कहते मुझे अपनी गोद में बिठा लिया। शायद अब तक वह बड़ी कठिनाई से अपने-आपको रख सका था। मैंने भी उन क्षणों का पूरा लाभ उठाने के लिए उससे उसी समय लिखित रूप में अपनी नौकरी का कान्ट्रेक्ट लिखवा लिया। सोचा, इस नरक से वह नरक कुछ बेहतर ही है। हो सकता है, कभी उस निर्मोही राजीव से भी इसी बहाने मिलन हो जाए और उसे बता सूकं कि देखो तुम्हारे ‘चित्रों की दुल्हन’ कहां से कहां पहुंच गयी और तुम्हारे प्यार की निशानी तुम्हारी बच्ची, एक अनाथालय में अपनी किस्मत को रो रही है । …
परन्तु ओफ्फ! मेरी तकदीर! आज मुझे यहां आए तीन साल गुजर चुके हैं, परंतु वह यहां भी नहीं आया। सोचा, एक कोशिश और करके देख लूं। शायद वह मेरी इस दर्द-गाथा को ही पढ़ ले। इसीलिए संपादक महोदय, मैंने ये कुछ शब्द पीड़ा की देहरी पर सिर पटकते हुए आपकी पत्रिका में प्रकाशित करवाने के लिए अंकित किये हैं। हो सके तो इसे अपनी पत्रिका में  मेरे चित्र सहित प्रकाशित करके, मुझ अभागिन पर एक उपकार कर दीजिए। बहुत आभारी रहूंगी। धन्यवाद।
भवदीया,
रीटा।
मैं पढ़ रहा था और सोच रहा था— कितना कड़वा सच है यह! और मैंने बड़े ही भारीपन से अपने चपरासी को आवाज दी।
‘जी सर!’ चपरासी ने आते ही पूछा।
‘देखो ये फोटो और कागजों का पुलिंदा,कम्पोजिंग विभाग में छपने के लिए दे आओ।’ चपरासी वह फोटो और कागज लेकर चला गया और मैं धीरे से एक सर्द आह भरकर मेज पर पड़ी फाइलें देखने लगा।

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